Monday, June 30, 2025

भूमिका

भूमिका

वर्तमान समय, मुंबई – जून की शुरुआत

सुबह से ही बारिश हो रही थी। न बहुत तेज, न ही तूफानी। बस एक लगातार गिरती फुहार, जैसे कोई पुरानी याद जो पीछा नहीं छोड़ती। खिड़कियों के शीशों पर टेढ़ी-मेढ़ी धारियाँ बनाकर पानी बह रहा था, जिससे बाहर का नज़ारा धुंधला और अधूरा लग रहा था। ऐसा लग रहा था मानो शहर एक अधूरी पेंटिंग में बदल गया हो।

छठी मंज़िल पर बने एक शांत अपार्टमेंट में, आरव सेन अपनी स्टडी में बैठा था। बगल की खिड़की के बाहर की बारिश को वह बिना देखे देख रहा था। उसके सामने लैपटॉप खुला था, स्क्रीन पर आधा लिखा हुआ एक डॉक्युमेंट खुला हुआ था। वह पिछले एक घंटे से उसमें एक शब्द भी नहीं जोड़ पाया था। उसकी उंगलियां कीबोर्ड से दूर थीं, और उसका मन कहीं और।

उसने अपने माथे को हल्के से मसा। दर्द नहीं था, पर कुछ तो था। एक ऐसा एहसास जो शब्दों में नहीं आता, पर दिल में कहीं गहराई से चुभता है। वह वही पुराना खालीपन था जिसे उसने खुद से कई बार छिपाने की कोशिश की थी।

तभी दरवाज़े की घंटी बजी।

आरव चौंका। वह किसी के आने की उम्मीद नहीं कर रहा था। उसकी ज़िंदगी अब बहुत सधी हुई थी, जैसे कोई रोज़ दोहराया जाने वाला रूटीन। न कोई सरप्राइज़, न कोई बेवक्त की दस्तक। और वह उसी जीवन से संतुष्ट था, या शायद खुद को यह यकीन दिला बैठा था।

उसने दरवाज़ा खोला। बाहर कोई नहीं था।

बस फर्श पर एक छोटा सा भूरे कागज़ में लिपटा पार्सल रखा था। वह बड़े करीने से पैक किया गया था, एक हल्के नीले रंग की फीकी हो चुकी रिबन से बंधा हुआ। उस पर न तो कोई प्रेषक का नाम था, न पता। सिर्फ एक सीधी, सादी लिखावट में उसका नाम लिखा था – आरव सेन।

उसने झुक कर पैकेट उठाया। हल्का था, पर खाली नहीं। वो कोई ऑनलाइन डिलीवरी जैसा नहीं लग रहा था। उसमें कोई औपचारिकता नहीं थी। वह कुछ और था। वह निजी था।

वह उसे लेकर अपनी स्टडी में लौट आया और अपनी डेस्क पर रख दिया। कुछ पल वह उसे बस देखता रहा। खोलने का मन तो था, पर जैसे कुछ रोक रहा हो। उस पैकेट में कोई पुरानी साँस बसी थी, कोई भूली हुई सिहरन।

धीरे-धीरे उसने रिबन को खोला, फिर कागज़ को हटाया। अंदर एक डायरी थी।

उसकी जिल्द हल्के हरे रंग की थी, चमड़े की, पर अब थोड़ी घिस चुकी थी। कोनों पर हल्की सिलवटें थीं। वह नई नहीं थी। वह समय के साथ जी चुकी थी।

आरव ने धीरे से उसे खोला।

पहले पन्ने पर बस चार शब्द लिखे थे, साफ़-सुथरी लिखावट में –

"यह तुम्हारे लिए है"

और उसके ठीक नीचे, थोड़े छोटे अक्षरों में लिखा था –

मीरा

आरव एकदम से सन्न रह गया।

मीरा। यह नाम वह बरसों से सुनना नहीं चाहता था। उसने खुद को सिखा दिया था कि यह नाम सुनकर कान बंद कर लेने हैं, या मन को भटकाना है। वह सिर्फ कोई पुराना किस्सा नहीं थी। वह एक अधूरा हिस्सा था, जो उसने खुद में कहीं गहरे दफ़न कर दिया था।

लेकिन अब वही हिस्सा उसके हाथों में था, उसके सामने, पूरी खामोशी में।

उसने कुर्सी की पीठ से टेक लगाई और आंखें बंद कर लीं। पहले तो कुछ नहीं हुआ। सिर्फ बारिश की आवाज़ सुनाई देती रही। फिर धीरे-धीरे एक तस्वीर उभरी।

सर्दियों की सुबह थी। कॉलेज की भीड़-भाड़ वाली गलियारा। और वह।

मीरा, खिड़की के पास खड़ी थी। बाल खुले हुए थे, हाथ में कोई किताब। वह हमेशा ऐसी लगती थी जैसे कोई ऐसी धुन सुन रही हो जो बाकी दुनिया को सुनाई नहीं देती। उस दिन सुबह की धूप उसके चेहरे पर पड़ रही थी और उसकी आंखें कुछ पल के लिए भूरे की जगह हल्की सी ग्रे लग रही थीं।

शायद उसने आरव को देखा था। शायद नहीं। या शायद देखा और अनदेखा कर दिया। यही उसकी आदत थी। वह कभी पूरी तरह से किसी की नहीं लगती थी। वह जैसे हवा में रहती थी – पास, लेकिन हाथ न लगने वाली।

आरव ने फिर से डायरी खोली।

उसमें उसके हाथों की लिखाई थी – मीरा की। वही लिखावट, पर थोड़ी परिपक्व। कुछ लाइनें काट दी गई थीं, कुछ पर पेंसिल से निशान थे। कुछ पन्नों के कोनों पर धब्बे थे – बारिश के या शायद आंसुओं के। यह वह नहीं जान सका।

उसने यूं ही एक पन्ना पलटा।

शब्द बहुत पास-पास लिखे हुए थे, जैसे किसी ने जल्दबाज़ी में कुछ छुपा लिया हो, या डरते-डरते सब कुछ कह डाला हो।

एक लाइन थी जो सीधे दिल में उतर गई –

"कुछ कहानियाँ कभी ज़ुबान तक नहीं आतीं। वो सिर्फ आंखों की झलक में रहती हैं, अधूरे जुमलों में, या उन टुकड़ों में जो हम कभी किसी को दिखा नहीं पाते। ये मेरी है।"

आरव ने डायरी बंद कर दी।

उसने उसे सीने से लगा लिया, अनायास।

बाहर आसमान और गहरा हो गया था। बारिश अब थोड़ी तेज़ हो गई थी, खिड़की के शीशे पर गिरती हुई, जैसे शहर खुद किसी भूली हुई याद को फिर से जी रहा हो।

अंदर, एक आदमी बैठा था – शांत, अकेला – अपने हाथों में वो आखिरी चीज़ लिए जो मीरा ने उसे दी थी।

और आखिरकार, उसने खुद को याद करने दिया।

उसने अपने अंदर उस नाम को फिर से उतरने दिया।

मीरा।

जिसे वह जितना भूलना चाहता था, वह उतनी ही गहराई में बस गई थी।

आज, सालों बाद, एक पुरानी डायरी के ज़रिए, वो एक बार फिर लौट आई थी।


No comments:

Post a Comment