Thursday, July 3, 2025

अध्याय एक: जब वह पास थी

अध्याय एक: जब वह पास थी

 पुणे, दस साल पहले

सर्दियों में कैंपस हमेशा थका-थका सा लगता था उदास नहीं, बस ऐसा जैसे हज़ारों अधूरी रह गई बातचीतों का बोझ उठाए हुए हो पेड़ शांत खड़े रहते, उनकी सूखी पत्तियाँ पत्थर की पगडंडियों पर बिखरी होतीं, पैरों के नीचे खड़खड़ातीं हवा में हल्की सी ठंडक थी, जो काटती नहीं थी, बस कानों में कुछ कहती सी लगती

आरव अपने हुडी की जेबों में हाथ डाले चला जा रहा था, बैग एक कंधे से लटका हुआ शाम ढल रही थी और आख़िरी क्लास को खत्म हुए एक घंटा बीत चुका था सूरज हल्का और फीका था, और उसके लंबे साये प्रांगण में बिछे हुए थे ज़्यादातर छात्र जा चुके थे, अपने वीकेंड की योजनाओं के पीछे
उसे ये वक़्त पसंद था, जब दुनिया थोड़ी शांत हो जाती थी और खुद की आवाज़ सुनाई देने लगती थी

वह प्रांगण के उस छोर की ओर गया, जहाँ एक पुरानी लकड़ी की बेंच गुलमोहर के पेड़ के नीचे रखी थी वह ऐसी जगह थी जहाँ लोग अक्सर गुज़रते थे, पर रुकते कम थे
जब तक उन्हें ख़ामोशी की तलाश हो

वहीं थी वह
मीरा

वह पालथी मारे बैठी थी, जूते उतारे हुए, पैरों के तलवे अपनी गहरी हरे रंग की कुर्ती में समाए हुए उसकी जींस नीचे से थोड़ी घिसी हुई थी, स्टाइल में नहीं, बल्कि अपनेपन से उसके हाथों में वही नोटबुक थी जो वह हमेशा साथ रखती थी हरी जिल्द वाली, जिसकी रीढ़ टूटी हुई थी और कोने मुड़े हुए उसकी उंगलियाँ पन्नों पर तेज़ी से चल रही थीं, सिर झुका हुआ, एक लट गाल पर गिरी हुई

आरव कुछ कदम दूर ठिठका उसे समझ नहीं आया कि बोलना चाहिए या चुपचाप निकल जाना चाहिए
उसे नहीं पता था कि मीरा ने उसे देखा था या वो बस ऐसा दिखा रही थी कि नहीं देखा

वो हमेशा उस पल की लगती थी जिसमें वह होती थी कोई सपनों में डूबी लड़की नहीं, बल्कि पूरी तरह मौजूद
यह वह कला थी जो आरव कभी नहीं सीख पाया उसका मन हमेशा आगे दौड़ता था, हर फैसले पर शक करता हुआ लेकिन मीरा वो एक जगह रुक कर रहना जानती थी, और उसका रुकना एक विकल्प जैसा लगता था

वह जाकर बेंच पर बैठ गया
ना बहुत पास, ना बहुत दूर
बेंच हल्के से चरमराई

मीरा ने ऊपर नहीं देखा

उसने उसकी से प्रोफ़ाइल देखी, नाक की हल्की रेखा, भौंहों के बीच की शिकन जो उसकी एकाग्रता की निशानी थी उसके होंठ थोड़े खुले थे, जैसे वो खुद की लिखी हुई बातों को धीरे-धीरे पढ़ रही हो उसके अंगूठे के किनारे पर नीली स्याही का एक छोटा सा दाग था

"तुम हमेशा ऐसे लिखती हो जैसे वक़्त कम पड़ रहा हो," आरव ने धीरे से कहा

उसका पेन धीमा हुआ, पर रुका नहीं

"शायद वाक़ई कम है," मीरा ने कहा

यह दो हफ़्तों में पहली बात थी जो उसने आरव से कही थी

आरव हल्के से मुस्कुराया, पर वो मुस्कान ज़्यादा देर नहीं टिक पाई
"तुम ऐसी बातें कहती हो और फिर एक महीने तक चुप रहती हो"

मीरा ने नोटबुक बंद की और उसे अपनी गोद में रखा
वह उसकी तरफ़ मुड़ी, चेहरा भावहीन, लेकिन निगाहें गहरी

"हमेशा सही शब्द नहीं होते मेरे पास"

आरव ने सिर हिलाया, जैसे खुद से सहमति जता रहा हो
उसने और कुछ नहीं कहा

उनके बीच एक ख़ामोशी थी, लेकिन असहज नहीं
वह वैसी थी जैसी कोई साझा ओढ़नी हो
वह पीठ से टिक गया और शाखाओं के ऊपर आसमान को देखने लगा

"बाकी सब तो ब्रेक के लिए घर जा रहे हैं," उसने कहा
"तुम यहीं रह रही हो?"

"जब जगह खाली होती है, तब अच्छा लगता है"

"मुझे भी"

वह हल्के से मुस्कुराई और फिर नीचे अपनी नोटबुक की ओर देखने लगी
उसकी उंगलियाँ जिल्द के किनारे को ऐसे छू रही थीं जैसे वह कोई ज़िंदा चीज़ हो

"जब दुनिया शांत होती है, तब अपनी आवाज़ ज़्यादा साफ़ सुनाई देती है," उसने कहा

इस बार आरव ने उसे ध्यान से देखा
सिर्फ एक निगाह नहीं, बल्कि एक पल की गंभीरता
उसकी त्वचा सांझ के रंग जैसी थी, ना ज़्यादा गोरी, ना सांवली बस वैसी कि जिस पर रौशनी को प्यार हो जाए
उसकी आँखें कुछ और ही थीं धूसर, जैसे भूरी रही हों कभी, पर भूल गई हों
उसके बाल खुले थे, कंधों पर बिखरे, गहरे और लहराते हुए, जैसे खुद अपनी मर्ज़ी से चलते हों
वो मेकअप नहीं करती थी, ज़रूरत भी नहीं थी
उसके बारे में सब कुछ सच्चा लगता था सादा, साफ़

आरव हमेशा पूछना चाहता था कि वो उस नोटबुक में क्या लिखती है, पर उसने कभी नहीं पूछा
कुछ था उसमें जो कहता था अगर वो कभी उसे पढ़ने दे, तो वो बात हर किसी बातचीत से ज़्यादा मायने रखेगी

"कभी-कभी सोचता हूँ, काश चीज़ें आसान होतीं," आरव ने अचानक कहा

मीरा ने उसकी तरफ़ नहीं देखा
"अगर आसान होतीं, तो शायद हम उन्हें समझने की कोशिश ही करते"

"तुम हमेशा ऐसे जवाब देती हो"

"कैसे?"

"जैसे जवाब नहीं, कोई पहेली दे रही हो"

इस बार उसने सिर घुमाया और उनकी निगाहें मिलीं
एक क्षण के लिए, दुनिया की हर आवाज़ रुक गई

कुछ पल के लिए जैसे कोई चिंगारी सी दौड़ गई उनके बीच बहुत हल्की, लेकिन सच्ची

फिर उसने पलकें झपकाईं और नज़रें फेर लीं

आरव ने महसूस किया वो अजीब-सी टीस जो पसलियों के पीछे घर करती है, जब कोई चीज़ ज़रूरत से ज़्यादा मायने रखने लगे

"अब मुझे चलना चाहिए," मीरा ने धीरे से कहा

आरव कुछ कहता उससे पहले ही वह उठी, नोटबुक बैग में रखी, जूते पहने और चल पड़ी

वह उसे जाता हुआ देखता रहा पीले अम्बर उजाले में एक साया

उसने उसे पुकारा नहीं

उसे पता था, वह पलटेगी नहीं

पर ये भी जानता था,
जो कुछ उसने नहीं कहा,
मीरा वो सब सुन चुकी थी


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