अध्याय दो: शब्दों के बीच की जगह
छात्रावास का प्रांगण पुराने पत्तों और भीगे कंक्रीट की गंध से भरा था।
रात में हल्की बारिश हुई थी, और अब हवा में एक तरह की नमी थी जो हर चीज़ को ज़्यादा पास और भारी महसूस करवा रही थी। खुले मैदान के उस पार एक खिड़की से संगीत आ रहा था — कोई गिटार बजा रहा था, सुर थोड़ा बेसुरा, जैसे किसी को प्रभावित करने की कोशिश नहीं कर रहा हो।
आरव सीढ़ियों पर बैठा था, एक हाथ में चाय का कप थामे, दूसरा घुटने पर टिका हुआ।
वो कोशिश कर रहा था कि उसके बारे में न सोचे।
जिसका मतलब था कि वो लगातार उसी के बारे में सोच रहा था।
उसे मीरा को देखे दो दिन हो चुके थे।
ये कोई अनोखी बात नहीं थी।
वो हमेशा अधूरे रास्तों में चलती थी।
कभी वो अचानक किसी बातचीत के बीच दिख जाती — चुप, पर पूरी तरह मौजूद।
और कभी ऐसे ग़ायब हो जाती जैसे शोर ने उसे खुद के भीतर कहीं और धकेल दिया हो।
आरव ने चाय का एक घूंट लिया।
चाय ठंडी हो चुकी थी, लगभग कड़वी, फिर भी उसने पी।
कमरे के अंदर फोन वाइब्रेट हुआ।
स्क्रीन पर ऋषि का मैसेज चमका — उसका रूममेट।
"भाई, गेम नाइट? 7 बजे पक्की। स्नैक्स लाना मत भूलना।"
आरव ने मैसेज अनदेखा कर दिया।
उसे ऋषि पसंद था, लेकिन आज की शाम कुछ ऐसी थी जिसमें किसी की मौजूदगी ख़ामोशी को और ज़्यादा तेज़ कर देती।
उसने स्केचपैड निकाला।
ज़्यादातर पन्नों में अधूरे डिज़ाइनों के रेखाचित्र थे — इमारतें,
कमरे,
गलियारे।
ऐसी जगहें जो अपने आकार से ज़्यादा कुछ समेटने के लिए बनाई गई थीं।
लेकिन हाल ही में उसकी पेंसिल बार-बार किसी और दिशा में लौट आती थी — आँखें।
बिलकुल हूबहू नहीं, पर जानी-पहचानी।
भौंहों की एक विशेष रेखा, झुकी हुई पलकों में छिपा हुआ कोई दुख।
वो कभी उसका नाम नहीं लिखता था।
ज़रूरत ही नहीं थी।
कुछ देर बाद, उसे पीछे से कदमों की आहट सुनाई दी।
उसने मुड़कर नहीं देखा।
किसी हिस्से ने पहले ही पहचान लिया था कि कौन था।
"ये आर्किटेक्चर जैसा तो नहीं लग रहा,"
एक आवाज़ आई — मुलायम, जैसे मुस्कान के करीब।
उसने कंधे के ऊपर से देखा।
मीरा वहाँ खड़ी थी, एक हाथ में पेपर बैग पकड़े।
उसने ईंट-लाल रंग का स्वेटर पहना था, सफेद ढीली शर्ट के ऊपर, जिसकी आस्तीनें कोहनी तक चढ़ी हुई थीं।
उसके बाल हल्के गीले थे, पीछे की तरफ सहेजे हुए, सिरों पर लहरें बनने लगी थीं।
वो शांत दिख रही थी — जैसे झील बारिश से पहले होती है।
"फिर से मेरे स्केचपैड की जासूसी कर रही हो?"
उसने पूछा।
"कोशिश नहीं कर रही थी। तुमने खुद ही खुला छोड़ रखा था।"
"मतलब मेरी गोद में रखा था।"
वो हल्के से मुस्कुराई और उसके बगल में बैठ गई, टाँगें मोड़कर।
उसका बैग सीढ़ी पर हल्की सी आवाज़ के साथ टिका।
उसने पेपर बैग दोनों के बीच रख दिया।
"समोसे लाई हूँ,"
उसने कहा।
"अगर तुम डिनर को मूड के साथ बर्बाद करने का सोच रहे हो तो।"
आरव ने उस बैग को ऐसे देखा जैसे वह कहीं गायब न हो जाए।
"मेस से चुराए हैं क्या?"
"नहीं। किसी और से चुरवाए हैं, पैसे देकर।"
दोनों हँसे — धीमे, सच्चे।
उस पल में कुछ बेहद सहज था।
कोई तनाव नहीं, कोई अनकहे सवाल नहीं।
बस दो लोग, एक बेंच और एक साझा ख़ामोशी,
जो पूरी तरह अपनी लगती थी।
उसने एक समोसा उठाया और कौर लिया।
अब भी गर्म था।
"मैंने नहीं सोचा था कि तुम आओगी,"
उसने कुछ देर बाद कहा।
"मैंने भी नहीं सोचा था। पर फिर लगा... शायद तुम यहीं मिलो।"
"तुम्हें हैरानी हो रही है कि मैं यहाँ मिला?"
"तुमसे कभी हैरानी नहीं होती। बस जिज्ञासा होती है।"
उसने उसे देखा — उस धुंधलके में उसकी प्रोफ़ाइल को नज़रों से पढ़ते हुए।
उसकी त्वचा में एक प्राकृतिक चमक थी, किसी श्रृंगार या प्रयास से नहीं, बस उसके आत्मविश्वास से।
वो ध्यान आकर्षित करने की कोशिश नहीं करती थी।
ज़रूरत ही नहीं थी।
उसकी उपस्थिति कमरे को भर देती थी, बिना हावी हुए।
"तुम मुझे कभी-कभी उलझा देती हो,"
आरव ने कहा।
"क्योंकि मैं गायब हो जाती हूँ?"
"क्योंकि तुम मुझे तुम्हें मिस करने देती हो।"
मीरा कुछ पल चुप रही।
उसने प्रांगण की ओर देखा, जहाँ कॉमन रूम के ऊपर एक बल्ब टिमटिमा रहा था।
"कुछ लोग रहना नहीं सीख पाते,"
उसने अंत में कहा।
"चाहते हैं, पर यकीन नहीं होता कि उन्हें रहने दिया जाएगा।"
"तुम्हें भी ऐसा ही लगता है?"
उसने कोई जवाब नहीं दिया।
आरव ने पीठ सीढ़ियों से टिका दी।
फिर से चुप्पी उतर आई।
ऐसी चुप्पी जो जवाब नहीं माँगती।
ऐसी जो किसी के साथ बैठकर भी अकेले होने की सहूलियत देती है।
कुछ मिनटों बाद, मीरा खड़ी हो गई।
"अब मुझे चलना चाहिए,"
उसने कहा।
आरव ने ऊपर देखा।
"तुम हमेशा तब जाती हो जब चीज़ें सच लगने लगती हैं।"
वो कुछ क्षण रुकी।
उसके शब्द हवा में अटके रहे।
"यही तो सबसे खतरनाक पल होता है,"
उसने कहा।
और फिर बिना कुछ और कहे, वह छात्रावास के भीतर चली गई।
उसके कदमों की धीमी आवाज़ पीछे छूटती गई।
आरव वहीं बैठा रहा।
स्केचपैड अब भी खुला था।
उसके हाथ में समोसे का आख़िरी कौर अब भी अनछुआ था।
उसे नहीं पता था कि मीरा को ज़्यादा डर किससे लगता है — पास आने से, या पूरी तरह देखे जाने से।
बस इतना समझ पा रहा था कि कुछ बदल गया था।
और जो भी था,
वह बस अब शुरू हो रहा था।
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