Thursday, July 3, 2025

अध्याय तीन: ख़ामोशी में गूंज

अध्याय तीन: ख़ामोशी में गूंज

कैंपस की लाइब्रेरी में ऊँची खिड़कियाँ थीं, जिनसे उतनी रोशनी जाती थी जितनी ज़्यादातर छात्रों को पसंद नहीं होती
धूल धूप की किरणों में तैरती रहती थी, जैसे कुछ पुरानी यादें जो कभी बैठती नहीं, बस भटकती रहती हैं
कमरे में पुराने काग़ज़ों की गंध थी वो जो अपनी उम्र से ज़्यादा जी चुके हों और कहीं दूर से आती एक फीकी सी खुशबू, शायद किसी का कोलोन, जो घंटों पहले जा चुका था
दूर छत पर एक पंखा धीरे-धीरे घूम रहा था
ना के बराबर ठंडक दे रहा था, फिर भी अपनी मौजूदगी का एहसास बनाए रखे हुए

आरव खिड़की के पास एक कोने की मेज़ पर बैठा था
उसके सामने किताबें फैली थीं, पर किसी को भी छुआ नहीं गया था
उसकी उंगलियों में एक पेन घूम रहा था, जबकि उसके विचार कहीं और भटके हुए थे
बाहर से हँसी की हल्की आवाज़ें आती थीं शायद थियेटर ग्रुप की

उसने नीचे देखा
सामने खुले पन्ने पर गणित के सूत्र थे, एकदम शांत, जैसे किसी उत्तर की प्रतीक्षा में

मुद्दा विषय का नहीं था
वो हमेशा अच्छा था इन चीज़ों में संरचना, तर्क, सीधी रेखाएँ
आर्किटेक्चर में सब कुछ समझ आता था
इमारतों को आकार दिया जा सकता था, मापा जा सकता था, खींचकर सच बनाया जा सकता था
वे वहीं रहती थीं, जहाँ उन्हें रखा जाता

लोग वैसे नहीं होते
खासकर वो नहीं

मीरा की एक आदत थी किसी जगह में ऐसे प्रवेश करती जैसे वो शुरू से उसी की हो
कैंटीन के बाहर उनकी पिछली बातचीत अभी भी उसके भीतर गूंज रही थी
उसने कई बार दोहराया था वो पल, उस चुप्पी को भी सुना था जो शब्दों के बीच थी
मीरा कभी ज़्यादा नहीं कहती थी बस उतना जिससे आप सोचते रह जाएँ कि उसने क्या नहीं कहा

उसने किताब बंद कर दी और पीठ पीछे की ठंडी दीवार से टिका दी

किसी ऐसे इंसान की परवाह करना क्या होता है, जो समझे जाना नहीं चाहता?
या उससे भी ज़्यादा कठिन, जो बस वही हिस्से दिखाता है जिन्हें खो देने से उसे डर नहीं लगता?

उसे याद था जब मीरा का हाथ उसके नोटबुक के ऊपर मँडराता था, लिखने से पहले
वो कैसे बीच वाक्य में रुक जाती थी, जैसे किसी ऐसी आवाज़ को सुन रही हो जो किसी और को नहीं सुनाई देती

वो नहीं जानता था कि वो क्या लिखती है
सिर्फ इतना कि वो किसी ऐसी जगह से आता था जहाँ कोई और पहुंच नहीं सकता था

और वो हर बार आरव के भीतर एक खालीपन छोड़ जाती थी

लाइब्रेरी का दरवाज़ा चरमराया

उसने मुड़कर नहीं देखा
उसे पता था

कुछ पल बाद, मीरा उसकी टेबल के पास से गुज़री
उसकी आँखें सामने थीं
कदम धीमे थे, पर निश्चित

वो सीधे उस हिस्से में गई जहाँ कविता की किताबें रखी थीं
उसका बैग एक ओर टिका हुआ था, चलते वक़्त थोड़ी सी लय में हिलता
आज उसके बाल चोटी में बंधे थे वो चोटी जो जल्दी में बनाई जाती है, जिसमें पीछे से कुछ लटें निकल आई हों
उसने गले में नीला दुपट्टा डाला था वैसा जो अलमारी के पीछे से अचानक निकल आए और तुम बिना सोचे पहन लो

उसने एक पुरानी, पतली किताब निकाली और पलटकर सामने वाली टेबल पर बैठ गई

उसकी नज़र बस एक पल के लिए आरव से मिली

आरव ने फिर से अपनी नोटबुक की ओर देखा, जैसे पढ़ने का नाटक कर रहा हो
उसका दिल उस क्षण से तेज़ धड़क रहा था जितना उसे स्वीकार था

मीरा की मौजूदगी ने कमरे को जैसे बदल दिया था
धीरे, बिना शोर के, मगर पूरी तरह

उसने खुद से कहा कि अब दोबारा नहीं देखेगा

और फिर उसने देखा

वो किताब खोल चुकी थी और पढ़ रही थी
उसकी भौंहें थोड़ी सिकुड़ी हुई थीं, ध्यान केंद्रित था
होंठ का एक किनारा हल्के से दाँतों के नीचे था एक आदत जो उसे अच्छी तरह याद थी
खिड़की की रोशनी उसके गाल की हड्डी को छूती हुई जबड़े के किनारे तक जाती थी

वो सोच रहा था वो क्या पढ़ रही है
क्या उसे उनकी याद रही है
या शायद, मीरा ने कभी "हम" को "हम" की तरह सोचा ही नहीं

शायद आरव उसके लिए सिर्फ एक साथ बिताया गया शांत दिन था
एक ऐसा कोना जहाँ वो तब आती जब दुनिया बहुत ज़्यादा शोर करती

पर अगर ऐसा था, तो वो बार-बार वापस क्यों आती?

आरव ने पेन उठाया और नोटबुक का एक खाली पन्ना खोला
बिना सोचे, उसने लिखा:

"वो कमरे में ऐसे दाखिल होती है जैसे कुछ याद कर रही हो जो कभी बताया ही नहीं और चली जाती है उससे पहले कि तुम पूछ सको वो क्या था?"

ये किसी असाइनमेंट का हिस्सा नहीं था
होने के लिए लिखा भी नहीं गया था

पर ये उस हफ्ते की सबसे सच्ची बात थी जो उसने लिखी थी

कुछ मिनट बाद, मीरा उठी
किताब को वापस शेल्फ में रखा और आरव की टेबल के पास से गुज़री

इस बार, वो रुकी

"तुम हमेशा तभी लिखते हो जब मैं आसपास होती हूँ"

आरव ने ऊपर देखा, थोड़ा चौंकते हुए

"शायद तुम लिखवा देती हो मुझसे"

वो हल्का सा मुस्कुराई
"या शायद मैं तुम्हें किसी ऐसी बात की याद दिला देती हूँ जिसे तुम भूलना नहीं चाहते"

उसके जवाब देने से पहले ही वो मुड़ी और बाहर चली गई
दरवाज़ा धीरे से बंद हुआ

आरव ने उस जगह को देखा जहाँ वो कुछ पल पहले थी

और तब समझा
वो उसे भूलने की कोशिश नहीं कर रहा था

वो उन हिस्सों को पकड़कर रखने की कोशिश कर रहा था,
जिनसे मीरा अब तक खुद भी पूरी तरह अलग नहीं हो पाई थी

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