Thursday, July 3, 2025

अध्याय चार: वो बातें जो नज़र आती हैं

अध्याय चार: वो बातें जो नज़र आती हैं

कॉमन रूम में सब कुछ वैसा ही था जैसा हर बार होता है जब बारिश होने वाली हो
रोशनी थोड़ी मद्धम थी, हर चीज़ धीमी सी लग रही थी, और पुराने चाय की एक जानी-पहचानी सी महक हवा में लटक रही थी, जैसे कोई बात जो सब जानते हैं लेकिन कोई कहना नहीं चाहता
सोफ़ा थका हुआ सा झुका था, मानो बहुत पहले हार मान चुका हो
छत का पंखा धीमी गति से घूम रहा था, हल्की आवाज़ करता हुआ
कमरे में इधर-उधर अधूरे जीवन की चीज़ें बिखरी पड़ी थीं किताबें, काग़ज़, स्नैक के रैपर, और थोड़ा बहुत शोर, जो लोगों के चले जाने के बाद भी रह जाता है

मीरा फर्श पर बैठी थी, घुटनों को सीने से लगाए, ठुड्डी उन पर टिकाए
उसकी नोटबुक खुली थी, लेकिन पन्ना खाली था

कमरे के दूसरी तरफ़, सना खिड़की के पास खड़ी थी
उसकी परछाईं शीशे में हल्के से दिख रही थी
उसने चाय का पेपर कप पकड़ा हुआ था, जिसे अब तक छुआ भी नहीं था
वो कुछ देर से चुप थी, ख़ामोशी को ऐसे खींचे हुए जैसे वो किसी काँच की चीज़ को पकड़े हो जिसे अगर ज़्यादा हिलाया जाए तो सच में बदल जाए

फिर उसने कहा,
"तुम कभी कहोगी?"

मीरा ने सिर नहीं उठाया
"क्या कहूँ?"

"तुम जानती हो"

कुछ पल के लिए दोनों शांत रहीं
बाहर से किसी ट्रेन की सीटी की आवाज़ टूटी खिड़की से अंदर रही थी

सना चलकर उसके पास आई और पास बैठ गई
जब मीरा अंदर से भी बिखरी हुई होती, तब भी सना की मौजूदगी जैसे सब कुछ थाम लेती थी

"तुम उसे वैसे देखती हो जैसे वो कोई सपना हो, जिसे तुम सोचती हो कि तुम्हें देखने की इजाज़त नहीं है," सना ने कहा, धीमे स्वर में
"और वो तुम्हें वैसे देखता है जैसे वो दुआ कर रहा हो कि ये सब बस उसकी कल्पना ना हो"

मीरा चुप रही

सना ने कप नीचे रखा और थोड़ा और पास झुक गई
"तुम बेरुख़ी नहीं कर रही हो पर ये जो इंतज़ार है, ये जो चुप्पी ये कुछ ना कुछ तोड़ देगी शायद उसमें शायद तुममें"

"मैं कुछ कर भी तो नहीं रही," मीरा ने धीरे से कहा

"यही तो परेशानी है"

अब जो ख़ामोशी आई, वो और भारी थी

फिर सना ने और भी धीमे स्वर में पूछा,
"क्या तुम उससे प्यार करती हो?"

मीरा ने आँखें बंद कर लीं
उसकी साँस एक पल के लिए अटक गई
लेकिन उसने हाँ नहीं कहा
ना भी नहीं कहा

उसने कुछ भी नहीं कहा

और सना के लिए उतना ही काफ़ी था

वो उठी, अपनी जींस झाड़ने लगी, हालाँकि वो साफ ही थीं
फिर मीरा की ओर देखा वो नज़रिया शांत था, लेकिन एकदम सपाट

"तुम्हें मुझे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है शायद उसे भी नहीं
पर एक दिन तुम्हें खुद से सच बोलना पड़ेगा
भले ही वो सिर्फ़ अपने मन के भीतर हो"

मीरा ने कोई जवाब नहीं दिया
वो वहीं बैठी रही, अपनी नोटबुक दोनों हाथों से पकड़े हुए
अंदर का पन्ना अब भी खाली था

सना दरवाज़े तक पहुँची
"लेकिन अगर तुम बहुत देर तक रुकी रहीं...
तो हैरान मत होना अगर कोई तुम्हारा इंतज़ार करना छोड़ दे"

दरवाज़ा चरमराकर बंद हुआ
उसके क़दमों की आवाज़ धीरे-धीरे दूर होती गई

मीरा वहीं बैठी रही

लाइटें एक बार झपकीं
फिर स्थिर हो गईं

बाहर आसमान में गरज सुनाई दी
इतनी दूर कि फ़िलहाल कोई असर नहीं

उसने पेंसिल उठाई

फिर रुकी

फिर नोटबुक बंद कर दी

अब भी खाली
अब भी उलझी हुई
पर अब भी उसकी अपनी

कुछ ही सौ मीटर दूर, उसी आसमान के नीचे, लेकिन एक अलग इमारत में,
लड़कों के हॉस्टल का लॉन्ज अपनी अलग सी अव्यवस्था में था

एक कोना था जहाँ भूला-बिसरा foosball टेबल पड़ा था
ऊपर पंखा धीरे-धीरे घूम रहा था, मैगी और घिसे हुए जूतों की मिली-जुली गंध को फैलाते हुए

आरव ज़मीन पर दीवार के सहारे बैठा था
एक टांग सीधी, एक मोड़ी हुई
उसका स्केचपैड पास में खुला पड़ा था
उसमें वो डिज़ाइन थे जो अब उसे ज़रा भी ज़रूरी नहीं लगते थे सेमिनार के लेआउट्स जिनमें अब दिलचस्पी दिखाने का नाटक भी नहीं करता

बगल के सोफ़े पर ऋषि ऐसे फैला पड़ा था जैसे किसी ऊँचाई से गिरा हो
हाथ में आधा खाया समोसा था, जिसे वो ऐसे पकड़ रहा था मानो कोई गंभीर अभिनय कर रहा हो

"मैं सच कह रहा हूँ," उसने समोसे को लहराते हुए कहा,
"मीरा तुम्हें पसंद करती है और वो वाला 'अच्छा दोस्त' वाला पसंद नहीं"

आरव ने ऊपर नहीं देखा
"हम ये बात नहीं करने वाले"

"हम बिल्कुल ये बात करने वाले हैं
तू सोचता है मुझे नहीं दिखता, जब भी वो कमरे में आती है, तेरी आँखें अचानक धुंधली सी हो जाती हैं?"

"मुझे तो समझ नहीं आता कि इसका मतलब क्या है"

"इसका मतलब है तू उसे वैसे देखता है जैसे वो कभी भी गायब हो सकती है
और ईमानदारी से कहूँ, हो भी सकती है"

आरव ने स्केचपैड बंद कर दिया

"वो आसान नहीं है, ऋषि"

"नहीं वो इमोशनली अवेलेबल नहीं है
और तू ही सब कुछ ज़्यादा सोचकर मुश्किल बना रहा है
हर नज़र को कहानी बना देता है
हर चुप्पी को कोई गहरा मोड़ बना देता है"

"कुछ चुप्पियाँ समझने लायक होती हैं"

"सिर्फ़ तब, जब वो कहीं पहुँचें"

आरव ने सिर दीवार से टिका दिया
पलकों को कुछ पल के लिए बंद किया
उसने खुद को मीरा की उस आवाज़ से दूर करने की कोशिश की
वो जो अक्सर खुद को रोक लेने से पहले ही धीमी हो जाती थी
उस हँसी से जो पूरी तरह ज़ोर से आने से पहले साँस लेती थी
जैसे उसे खुद यकीन नहीं कि उसका वहाँ होना ठीक है

उसने कुछ नहीं कहा

ऋषि ने भी नहीं

और उसी कैम्पस में कहीं और, उसी धूसर शाम के आसमान के नीचे,
मीरा और आरव अलग-अलग कमरों में बैठे थे

दोनों किसी ऐसी चीज़ को थामे हुए
जो कभी कहा ही नहीं गया

दोनों ये सोचते हुए
कि शायद दूसरा अब तक आगे बढ़ चुका है

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