अध्याय दस: खाली कुर्सी
डायरी प्रविष्टि — 3 मार्च, रात 12:41
मैंने आज फिर खुद से झूठ बोला।
मैंने खुद से कहा कि अब मैं आगे बढ़ चुकी हूँ।
कि तुम्हारे पास होने पर जो एहसास होता है, वो बस एक आदत है,
या कुछ बचे हुए पुराने लम्हों की परछाईं।
कुछ भी गंभीर नहीं।
पर फिर मैंने तुम्हें देखा।
तुम प्रांगण में बैठे थे,
घुटनों पर स्केचपैड रखा था,
कानों में हेडफोन,
अपनी ही दुनिया में खोए हुए।
और अचानक मुझे याद आ गया कि
किसी ऐसे इंसान से लगाव हो जाना कितना आसान होता है
जो कभी ऊपर नहीं देखता।
तुम हमेशा ऐसे लगे जैसे तुम्हारा ठिकाना कहीं और है।
कोई शांत जगह।
धीमी।
ऐसी नहीं, जहाँ हर वक़्त समय की कमी हो,
हर कोई किसी साबित करने की होड़ में हो।
तुम जैसे इस सब से थोड़ा ऊपर थे।
घमंड में नहीं।
बस... जुड़े बिना।
और शायद यही वो चीज़ थी
जिसने मुझे सबसे पहले तोड़ा।
तुम्हें कभी ध्यान की ज़रूरत नहीं थी।
लेकिन मुझे ज़रूरत थी कि तुम मुझे देखो।
हमारी क्लास में एक लड़का है।
शायद तुम जानते हो — जय।
वो बहुत बोलता है, लेकिन अच्छा है।
उसने आज मुझे कॉफ़ी पर चलने को कहा।
मैंने हाँ कह दिया।
इसलिए नहीं कि मैं सच में जाना चाहती थी।
बल्कि इसलिए कि मैं जानना चाहती थी
कि किसी ऐसे के सामने बैठना कैसा लगता है
जो मुझे अदृश्य महसूस नहीं कराता।
ठीक था।
उसने मुझे हँसाया।
मैंने उसे अपने उस स्केच के बारे में भी बताया
जिसे मैंने चार बार शुरू किया और फिर भी पूरा नहीं कर पाई।
लेकिन पूरी बातचीत के दौरान
मैं बस उस खाली कुर्सी को देखती रही
जो मेरे सामने थी।
वही कुर्सी
जिसमें मैंने हमेशा तुम्हें बैठे हुए सोचा था।
पर तुम कभी वहाँ नहीं थे।
घर लौटने के बाद
मैंने वो पन्ना निकाला जिसमें तुम्हारा चेहरा बना था।
जो मैंने अपनी डायरी में छिपा रखा था।
मैंने उसे फाड़ा नहीं।
बस एक छोटा सा चौकोर मोड़कर
पुराने फ़ोटो ऐल्बमों के पीछे अलमारी में रख दिया।
मैं चाहती थी कि दर्द थोड़ा कम हो।
लेकिन मैं भूलना नहीं चाहती थी।
आरव, अगर तुम कभी ये पढ़ो —
अगर ये पन्ने किसी तरह तुम्हारे हाथों में पहुँचे —
तो मैं बस एक बात कहना चाहती हूँ।
मैंने कभी तुमसे ये नहीं चाहा
कि तुम मुझसे प्यार करो।
मैं बस जानना चाहती थी
क्या मैं कभी तुम्हारे ज़हन में आई?
सिर्फ़ एक बार।
सिर्फ़ एक सेकंड के लिए।
सिर्फ़ खामोशी में।
– मीरा
आरव ने एक मिनट तक साँस ही नहीं ली।
उसने मीरा के शब्द दो बार पढ़े।
फिर तीसरी बार।
पर फिर भी वे शब्द भीतर कुछ चुभा गए।
कुछ हिला दिया।
"मैं बस जानना चाहती थी — क्या मैं कभी तुम्हारे ज़हन में आई?"
उसने डायरी बहुत धीरे से बंद की।
जैसे तेज़ी से कुछ भी करने से
वो सारे साल बह निकलेंगे
जो इन पन्नों में बंद थे।
फिर वो बस बैठा रहा।
कुर्सी हल्की सी चिरचिराई।
बाक़ी कमरा शांत था।
सिर्फ़ खिड़की पर पड़ती बारिश की आवाज़ थी।
ऐसा लग रहा था जैसे पूरा शहर
एक वाक्य को गूंजने देने के लिए चुप हो गया हो।
बिलकुल, मीरा उसके ज़हन में आई थी।
वो तो कभी गई ही नहीं।
लेकिन बात वो नहीं थी।
बात ये थी
कि मीरा को कभी इसका पता नहीं चला।
और ये उसकी ग़लती थी।
न किस्मत की।
न समय की।
न किसी अधूरे कविता-जैसे प्यार की जो ग़लत वक़्त पर आया हो।
बस उसी की।
वो कुछ देर यूँ ही चुप बैठा रहा।
फिर उसने एक और नोटबुक की ओर हाथ बढ़ाया।
मीरा वाली नहीं।
अपनी।
वही जो दूसरी शेल्फ़ पर रखी थी,
जिसमें अधूरी कहानियों की पंक्तियाँ थीं,
किरदारों के स्केच जो पहले ही पन्ने से आगे नहीं बढ़ पाए।
आज रात, कई सालों बाद,
उसने पहली बार
ख़ुद को लिखना शुरू किया।
ना उस लेखक की तरह
जिसकी किताबें छपी थीं।
ना उस इंसान की तरह
जिसे सबने सराहा था।
बस आरव की तरह।
"मैंने तुम्हें एक बार लाल म्यूरल वाली दीवार के पास देखा था।
तुम अपनी डायरी में कुछ ट्रेस कर रही थीं,
तुम्हारे होंठ हिल रहे थे
जैसे तुम कोई पंक्ति बुदबुदा रही हो
जो सिर्फ़ तुम सुन सकती थी।
तुम्हें अंदाज़ा नहीं था
कि तुम्हारी खामोशी कितनी ज़ोर से बोलती थी।
और मुझे डर लग रहा था —
कि मैं उसे समझना कितना ज़्यादा चाहता था।"
वो रुका।
उसके हाथ में पकड़ा पेन हल्का सा कांपा।
"तुम सिर्फ़ मेरे ज़हन से गुज़री नहीं, मीरा।
तुम उसमें रहती थीं।"
वो उठा और खिड़की तक गया।
बाहर अब भी बारिश हो रही थी।
स्ट्रीटलाइट्स नरम चमक रही थीं।
एक टैक्सी धीमे से गुज़री,
उसके टायरों ने पानी की छोटी लहरें बना दीं।
उसे याद आया मीरा का वो स्केच
जो उसने चार बार शुरू किया था।
वो सोचने लगा,
क्या उसका उससे कोई वास्ता था?
क्या उसने मीरा की बनाई हुई
कितनी ही चीज़ें मिस कर दीं —
सिर्फ इसलिए कि उसने कभी पूछने की हिम्मत नहीं की
कि वो क्या बना रही थी?
वो वापस अपनी डेस्क पर आया।
डायरी फिर से खोली।
अगला पन्ना उसका इंतज़ार कर रहा था।
लेकिन उसने उसे पलटा नहीं।
आज नहीं।
उसने मीरा के शब्द वहीं रहने दिए जहाँ वे थे।
उसने उसकी आवाज़ को
कमरे में ठहरने दिया।
और बहुत लम्बे वक़्त बाद,
उसने पहली बार
ख़ामोशी को भरने की कोशिश नहीं की।
बस उसे रहने दिया।
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