अध्याय नौ: सात सेकंड
डायरी प्रविष्टि — 9 फरवरी, रात 11:08
मुझे नहीं पता यह सब किस तरफ़ जा रहा है।
मैंने यह डायरी किसी नाटकीयता या कविता के लिए नहीं शुरू की थी।
मैंने इसे इसलिए लिखना शुरू किया था क्योंकि सब कुछ भीतर दबाए रखना सांस लेना मुश्किल कर रहा था।
कहीं उस दिखावे और सच्चे एहसास के बीच —
कि जैसे मुझे परवाह नहीं और जैसे मुझे बहुत ज़्यादा परवाह है —
कुछ धीरे-धीरे टूटने लगा।
आज का दिन बाकी दिनों से बदतर लगा।
हम सीढ़ियों के पास आमने-सामने आए।
तुम नीचे उतर रहे थे, तुम्हारे हाथ में एक फोल्डर था जिस पर पेंट लगे थे।
तुम कुछ गुनगुना रहे थे।
तुमने मेरी ओर नहीं देखा।
या शायद देखा, लेकिन तुम्हारी नज़र ऐसे आगे बढ़ गई जैसे मैं बस दीवार का हिस्सा थी।
मुझे बुरा नहीं लगना चाहिए था।
पर फिर भी लगा।
तुम्हारे ध्यान की चाहत में नहीं।
न ही इसलिए कि मैं चाहती थी तुम मेरे नाम को एक भीड़-भाड़ वाले गलियारे में पुकारो।
बुरा इसलिए लगा क्योंकि मैं चाहती थी तुम रुकते।
बस एक पल के लिए।
मैं जानना चाहती थी कि मैं वाकई तुम्हारी नज़रों में थी।
पर मैं नहीं थी।
इसलिए मैं बस खड़ी रही और तुम्हें जाते देखा।
मैंने सेकंड गिनना शुरू कर दिया।
जब तक तुम मोड़ के पार नहीं चले गए।
सात।
सात सेकंड लगे तुम्हें ग़ायब होने में।
मुझे नहीं पता मैंने क्यों गिने।
शायद मुझे कुछ थामने के लिए चाहिए था।
तुम्हारे साथ सब कुछ ऐसा ही रहा है, आरव।
तुमने कभी किसी को थामने के लिए कुछ ठोस नहीं दिया।
खुद को भी नहीं।
मेरे दिमाग़ में आज भी वो बातचीत घूमती रहती है, जो असल में कभी हुई ही नहीं।
हम दोनों लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठे हैं।
तुम्हारी जींस हमेशा की तरह मोड़ी हुई है, कान के पीछे एक पेंसिल अटकी हुई।
मैं कुछ मामूली कहती हूँ।
तुम उस खास अंदाज़ में हँसते हो, जैसे मुस्कुराने और ना मुस्कुराने के बीच कहीं।
और फिर वो पल ख़त्म हो जाता है।
मैं किताब बंद कर देती हूँ।
सब फिर से वही हो जाता है।
वास्तविक जीवन, जहाँ मैं तुम्हें खुद से एक क़दम दूर रखती हूँ —
इस डर से कि अगर तुम्हें पास आने दिया,
तो जो अंदर छिपा है, वो बाहर आ जाएगा।
मैं नहीं चाहती कि तुम्हें पता चले कि मैं कितनी बार तुम्हारे बारे में सोचती हूँ।
न ही ये कि मुझे तुम्हारी किताबों के शीर्षक याद हैं,
या ये कि मैं तुम्हारी लिखावट को दूर से पहचान सकती हूँ।
और तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा।
क्योंकि हमारे बीच की ये चुप्पी मुझे बचाती है।
भले ही कभी-कभी ऐसा लगे कि मैं उसी में दम घुटने के कगार पर हूँ।
भले ही वो उस हिस्से को दफ़न कर दे जो बस तुम्हारा नाम एक बार ज़ोर से लेना चाहता है —
सिर्फ़ यह जानने के लिए कि वो कैसा लगता है जब मैं आखिरकार उसे कह देती हूँ।
खैर।
कल छुट्टी है।
शायद मैं कमरे में ही रहूँगी।
आर्ट ब्लॉक के पास नहीं जाऊँगी।
मैं नहीं चाहती कि तुम्हारे सामने अनायास आ जाऊँ।
जबकि तुम पहले से ही हर जगह नज़र आते हो।
– मीरा
सात सेकंड।
आरव कुर्सी पर पीछे की ओर झुका हुआ था,
अब भी मीरा के शब्दों को देख रहा था।
पन्ने का किनारा पंखे की हवा से हल्के से हिल रहा था।
या शायद उसकी अपनी उंगलियों से।
उसने वो शब्द ज़ोर से दोहराए —
सात सेकंड।
वो कहना नहीं चाहता था,
पर फिर भी बोल दिया।
जैसे यह संख्या उसके भीतर कहीं अटक गई हो।
उसे नहीं पता यह पवित्र थी या क्रूर।
उसने आँखें बंद कीं और उस दिन को याद करने की कोशिश की।
जिस दिन मीरा ने ये लिखा था।
स्टूडियो की सीढ़ियाँ।
हाथ में फोल्डर।
सिर में कोई धुन।
वो याद धीरे-धीरे लौटी।
जैसे आने में झिझक रही हो।
पर आई।
हाँ। वो गुरुवार था।
उसने फाइनल एग्ज़िबिट का एक रफ कॉन्सेप्ट दिखाया था।
उसे यकीन नहीं था किसी और को कुछ समझ आया या नहीं।
उसे याद है, सीढ़ियों के नीचे किसी के पास से गुज़रा था।
चप्पलों की हल्की-सी आवाज़।
वो अजीब-सा अहसास कि कोई उसे देख रहा है।
पर उसने पीछे नहीं देखा।
इसलिए नहीं कि वो महसूस नहीं कर रहा था।
बल्कि इसलिए कि उसने खुद को समझा लिया था कि नज़रअंदाज़ करना बेहतर है।
अब वो चाहता है कि काश एक पल के लिए मुड़कर देख लिया होता।
बस एक सेकंड के लिए।
उन सात में से एक के लिए भी।
पर तब, आरव उन लोगों में से था
जो असहज सच्चाइयों से बचने के लिए कभी कठिन सवाल नहीं पूछते।
उसे लगता था चुप्पी आसान होती है।
सरल।
जैसे वो लोगों को यह आज़ादी देती है कि वे जो चाहें सोच सकें।
पर मीरा ने कुछ नहीं सोचा।
वो उन खाली जगहों में जीती रही।
और वहाँ वो टूटती रही।
उसने आँखें खोलीं और घड़ी की ओर देखा।
आधी रात बीत चुकी थी।
बाहर का शहर फिर से शांत था,
उस पल की तरह जब एक दिन खत्म होता है और अगला शुरू भी नहीं होता।
हवा में कुछ मुलायम था।
भूतकाल बहुत पास लग रहा था।
वो उठा, रसोई में गया,
पानी का एक गिलास भरा,
और फिर डेस्क के पास लौट आया।
उसने फिर से मीरा के शब्दों की ओर देखा:
"मैं तुम्हें फिर से देख लेने का जोखिम नहीं लेना चाहती।
जबकि तुम पहले से हर जगह मौजूद हो।"
उसे समझ नहीं आया इस वाक्य का क्या करे।
कैसे इसे थामे बिना, खुद के भीतर कुछ टूटे नहीं।
आरव ने सालों लगाए थे खुद को दूर रखने की आदत में ढालने में।
वो इसमें अच्छा हो गया था।
जैसे दूरी एक कला हो।
उसे लगा था मीरा चली गई क्योंकि वो जाना चाहती थी।
जैसे लोग कभी-कभी चुपचाप दूर हो जाते हैं।
पर अब, वो कुछ और समझने लगा था।
शायद,
उनमें से कोई भी कभी गया ही नहीं।
शायद,
वे कभी वाकई आए ही नहीं।
उसने डायरी के कुछ और पन्ने पलटे।
फिर रुक गया।
डायरी बंद कर दी।
अभी नहीं।
वो मीरा के शब्दों से जल्दी नहीं गुज़रना चाहता था।
वो उस गति का सम्मान करना चाहता था
जो मीरा ने चुनकर लिखी थी।
क्योंकि यह सिर्फ़ उसकी कहानी नहीं थी।
यह वो संस्करण था
जो उनके बीच कभी बोला ही नहीं गया।
और कभी-कभी,
सबसे तकलीफदेह सच वे नहीं होते जो भूल जाते हैं।
बल्कि वे होते हैं
जो इंतज़ार करते हैं।
शांत।
धैर्य के साथ।
जब तक तुम उन्हें सुनने के लिए तैयार न हो जाओ।
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