अध्याय आठ: पन्नों के बीच की स्थिरता
बारिश फिर से लगातार हो रही थी।
खिड़कियों पर उसकी आवाज़ टिक-टिक की तरह थी, जैसे कोई घड़ी जो यह नहीं जानती कि कब रुकना है।
आरव बहुत देर तक शांत बैठा रहा।
डायरी अब भी डेस्क पर खुली पड़ी थी।
मीरा के शब्द जैसे उसे देख रहे थे।
जैसे किसी ऐसी बातचीत की परछाई, जो कभी शुरू करने की हिम्मत दोनों में नहीं थी।
वो बातचीत जो रुकावों में छिपी होती है, उस पल में जब कोई किसी का नाम लेने से पहले ज़रा-सा ठहरता है।
उसने अपने बालों में हाथ फिराया और एक लंबी साँस बाहर छोड़ी —
वो साँस जो उसे पता भी नहीं था कि रुकी हुई थी।
डायरी की पहली प्रविष्टि ने उसे चौंकाया नहीं।
पर फिर भी, वो अनपेक्षित थी।
मीरा ने उसे सच में देखा था।
तब भी, जब उसने खुद को यह समझा लिया था कि मीरा को समझना मुश्किल है।
कि वो बहुत दूर है।
उस किस्म की खामोशी में लिपटी हुई, जो लोग बिना किसी इरादे के साथ लाते हैं।
पर अब पता चला,
कि वो भी उतनी ही डरी हुई थी।
शायद उससे भी ज़्यादा।
आरव खड़ा हुआ और खिड़की के पास गया।
शहर उसके सामने फैला था —
सारे रंग धुंधले ग्रे और सुनहरी रोशनी में घुले हुए।
मुंबई थोड़ी शांत लग रही थी, जैसे खुद शहर भी कुछ सुनने के लिए रुक गया हो।
उसे मीरा की कही एक बात याद आई।
एक दोपहर जब वे सच में एक-दूसरे से कुछ देर बात कर पाए थे।
वे आर्ट ब्लॉक के पास पुराने बरगद के पेड़ के नीचे बैठे थे।
"तुम्हें पता है, गलत समझे जाने से भी बुरा क्या है?"
उसने पूछा था।
"क्या?"
उसने कहा था।
"लगभग समझे जाना।
वो ज़्यादा अकेलापन देता है।"
तब आरव के पास कोई जवाब नहीं था।
वो बस उसे देखता रहा था,
सोचते हुए कि मीरा की बातें हमेशा ऐसे आती थीं जैसे वो बातचीत में उससे पाँच क़दम आगे हो।
और अब, दस साल बाद, खिड़की के पास खड़ा होकर —
उसे वो बात समझ में आई।
उन दिनों, वे ज़िंदगी ऐसे जीते थे जैसे समानांतर रास्तों पर चल रहे हों।
इतने पास कि एक-दूसरे की मौजूदगी महसूस होती थी।
पर इतने पास नहीं कि रास्ते एक हो सकें।
इतने पास कि कुछ बदल नहीं सका।
बस इतना पास कि जो नहीं था, उसकी कमी हमेशा बनी रही।
वो फिर से कुर्सी पर बैठा।
उसका हाथ फिर से डायरी की ओर गया, पर उसने उसे अभी नहीं खोला।
उसके सीने में एक अहसास था।
ना उदासी।
ना बीते वक्त की याद।
कुछ और।
कुछ शांत।
पर थोड़ी चुभन लिए हुए।
अफ़सोस।
पर उन चीज़ों का नहीं जो हो गईं।
बल्कि उन सबका जो कभी हो ही नहीं सका।
उसने कुर्सी की पीठ से टिकते हुए अपने हाथों को अपने मुँह के पास रखा।
डायरी अब बंद थी,
फिर भी उसमें जैसे कुछ गर्म था —
जैसे वो अब भी कुछ जीवित पकड़े हुए हो।
सालों में, आरव ने दर्जनों कहानियाँ लिखीं थीं।
कुछ प्रकाशित हुईं।
एक को पुरस्कार भी मिला था,
जिसे उसने कभी अपनी दीवार पर टाँगने की ज़रूरत महसूस नहीं की।
पर उन कहानियों में एक भी मीरा के बारे में नहीं थी।
उसने मीरा को अपनी लिखाई से उसी तरह दूर रखा था,
जैसे अपने जीवन से —
धीरे से।
संभालकर।
जैसे वो सबसे सुरक्षित है,
उस खाली जगह में जहाँ शब्द खत्म होते हैं।
अब वो बोल रही थी।
अब वो वो सब कह रही थी
जो आरव कभी पूछने की हिम्मत नहीं कर पाया।
उसने एक क़लम उठाई,
अपनी नोटबुक पास खींची,
और एक खाली पन्ने पर लिखा:
"वो लिखती थी — ज़िंदा रहने के लिए।
मैं पढ़ता हूँ — याद रखने के लिए।
शायद इन दोनों के बीच, हम आखिरकार बात करेंगे।"
वो रुका।
फिर बिना ज़्यादा सोचे, नीचे लिखा:
"शायद यही हमारी मुलाकात है।
आख़िरकार।"
वो डायरी को आगे पढ़ेगा।
पर धीरे-धीरे।
क्योंकि ये कोई कहानी नहीं थी जिसे जल्दी-जल्दी पढ़ लिया जाए।
ये कुछ ऐसा था —
जिसके साथ जिया जाता है।
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