Thursday, July 3, 2025

अध्याय तेरह: जहाँ वो बैठती थी

अध्याय तेरह: जहाँ वो बैठती थी

शाम ढल रही थी जब आरव मुंबई वाले अपने अपार्टमेंट से बाहर निकला

मीरा की डायरी अब भी उसकी डेस्क पर खुली पड़ी थी आखिरी प्रविष्टि, 4 अप्रैल की तारीख वाली, उसके साथ ऐसे बनी रही जैसे अभी-अभी लिखी गई हो वो इतनी सच्ची थी कि उसे छूना भी डरावना लगता था, और इतनी ईमानदार कि भुलाया नहीं जा सकता था

आरव ने पुणे जाने के लिए ट्रेन नहीं ली

उसने एक कैब बुक की, और फिर जब वह कॉलेज वाले पुराने मोहल्ले के पास पहुँचा, तो बाकी रास्ता पैदल तय किया

सड़कें पहले से ज़्यादा सँकरी लग रही थीं हवा में वही पुरानी सीलन और देर शाम की धूप की मिली-जुली खुशबू थी शहर बदल गया था, कुछ हिस्से ज़्यादा चमकदार और ऊँचे हो गए थे लेकिन ये इलाका वैसा ही था थोड़ा टेढ़ा, थोड़ा गर्म, पर एकदम असली

वो उस छोटी बुकशॉप के सामने से गुज़रा जहाँ मीरा कभी-कभी कविता की किताबें पलटती थी, बिना खरीदे बाहर लगी स्लेट पर आज भी कुछ लिखा था, पर बारिश की नमी से आधा मिट चुका था

झील के पास वाला कैफ़े अब भी थोड़ा बाईं ओर झुका हुआ था, जैसे इमारत ने पूरी तरह सीधा खड़े होने की उम्मीद छोड़ दी हो

जब तक वो कैंपस पहुँचा, सूरज मानविकी भवन के पीछे डूब चुका था, और प्रांगण में लंबी, खिंची हुई छायाएँ फैल गई थीं

कॉलेज का गेट अब भी खुला था, लेकिन रौनक कम हो चुकी थी कुछ छात्र कैंटीन के पास घूम रहे थे कुछ स्केच रोल्स और बैग समेट रहे थे दिन अब थमने लगा था

गेट के पास पुराना सिक्योरिटी गार्ड खड़ा था आरव ने सिर हिलाकर अभिवादन किया गार्ड ने आँखें मिचमिचाईं, फिर हल्की मुस्कान दी, जैसे वो उसे पहचानता हो लेकिन याद नहीं रहा हो कहाँ से

आरव ने रुककर कुछ समझाने की ज़रूरत नहीं समझी उसे अब इसकी ज़रूरत नहीं थी

वो उस चाय की टपरी के पास से गुज़रा जो अब भी पेपर कप के लिए ज़्यादा पैसे लेती थी उस ऑडिटोरियम की दीवार के पास से, जिस पर पेंट फिर से उखड़ने लगा था जैसे रंगाई कभी भी सच में टिकती ही नहीं

लॉन के पार एक लड़का अपने दोस्तों को कुछ चिल्लाकर बुला रहा था उसकी हँसी हवा में गूँज गई और एक पल को आरव को लगा जैसे वो किसी पुराने दोस्त की याद दिला रही हो

वो लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर रुका

जब वो यहाँ आखिरी बार आया था, तब उसके पास अब भी एक वैध आईडी कार्ड हुआ करता था उसे याद आया, किसी प्रोजेक्ट में देर हो गई थी, और वो इन्हीं सीढ़ियों पर दौड़ता हुआ चढ़ा था हाथों में ढेर सारे ड्रॉइंग्स और नींद से भरी आँखें

अब उसने एक-एक सीढ़ी धीरे-धीरे चढ़ी

लाइब्रेरी अब भी सात बजे तक खुली रहती थी जैसे पहले रहती थी

लाल बलुआ पत्थर ढलती धूप में और गहरा चमक रहा था सीढ़ियों के किनारों पर अब काई जम गई थी गेट पर हाथ रखने से हल्की-सी चरमराहट हुई ये आवाज़ भी वैसी ही थी जानी-पहचानी

अंदर की हवा भी वैसी ही थी पुरानी, किताबों की खुशबू से भरी और एक ख़ामोशी से पर वो खाली नहीं लगती थी जैसे ख़ामोशी का भी यहाँ एक वज़न था, एक मौजूदगी थी

सामने एक नई डेस्क थी वहाँ अब एक नई लाइब्रेरियन बैठती थी छोटे बाल, गोल चश्मा, और एक कार्डिगन पहने हुए, जबकि मौसम ठंडा नहीं था

उसने आरव को देखा, जिज्ञासु नज़रों से, लेकिन बेरुखी के बिना

"गुड इवनिंग," उसने कहा
"गुड इवनिंग," आरव ने जवाब दिया

थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने बस इतना कहा,
"मैं यहाँ पढ़ा करता था"

लाइब्रेरियन मुस्कुराई इसलिए नहीं कि वो आरव को पहचानती थी,
बल्कि इसलिए कि वो उस भावना को समझ गई जो आरव की बात में छुपी थी

"वेलकम बैक," उसने कहा, और फिर अपने काम में लग गई

आरव ऊँची शेल्फ़ों और हरे लैंप्स के बीच से गुज़रा
वो गलियाँ, जिनमें दशकों की चुप्पी बसी थी,
उसे रास्ता दिखा रही थीं

उसके पैर खुद--खुद वहाँ चले गए

कमरे के सबसे पीछे
जहाँ खिड़कियों से हर शाम वही मुलायम, सुनहरा उजाला आता था
मौसम कोई भी हो, रोशनी का गिरना वहाँ हमेशा एक जैसा ही होता था

यही वो जगह थी जहाँ मीरा बैठा करती थी

हर दिन नहीं
पर इतने अक्सर कि आरव ने इस दिशा में देखना सीख लिया था
इस उम्मीद में कि शायद वो वहाँ हो

और अब भी वही कुर्सी थी खाली

थोड़ी पुरानी लग रही थी बाँह रखने की जगह पर कुछ नए नाम उकेरे गए थे मीरा के नहीं

पर आरव जानता था
यही वो जगह थी

यहीं वो लाइब्रेरी की किताबों में पंक्तियाँ रेखांकित करती थी
यहीं उसकी ख़ामोशी इस पूरे कमरे को ऐसा बना देती थी
जैसे ये सुन रहा हो

आरव सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया

मीरा की जगह लेने के लिए नहीं
बस
उसे याद करने के लिए
सच में याद करने के लिए

ना किसी कभी हो सकता था की तरह
ना किसी अधूरे अफ़सोस की तरह

बल्कि एक ऐसी इंसान के रूप में,
जिसने अपनी ज़िंदगी उसके बिना भी पूरी तरह जिया,
और फिर भी
उस ज़िंदगी के कुछ हिस्से
उसके साथ बाँटे

लाइब्रेरियन ने दूर से एक नज़र डाली
कुछ नहीं कहा
सिर्फ़ सिर हिलाया और अपने काम में लग गई

आरव ने अपनी जैकेट की जेब से एक पेन निकाला

एक कोरी नोटबुक खोली

और लिखा
"तुमने मुझसे कभी पीछे आने को नहीं कहा
तुम बस चलती रहीं
और मैं पीछे रह गया,
सोचते हुए कि तुम मुड़कर देखोगी

अब समझ आता है
दुनिया ने मुझे पीछे नहीं छोड़ा
तुम आगे बढ़ गई थीं"

वो तुरंत घर नहीं लौटा

बाहर आसमान अब उस हल्के नीले रंग में बदल चुका था
जहाँ दिन खत्म हो जाता है
पर रात अभी पूरी तरह शुरू नहीं होती

सड़क की लाइटें जलने लगी थीं
सुनहरी रौशनी से गलियों पर हलका-सा परदा डालते हुए

आरव स्टेशन की तरफ नहीं गया
वो बस चलता रहा

पुराने हॉस्टल की इमारत के पास से
उस टूटे हुए बास्केटबॉल कोर्ट के सामने से,
जहाँ वो और ऋषि कभी फ़िल्मों और भविष्य के बारे में बहस किया करते थे
जिनके बारे में उन्हें कुछ भी पूरा पता नहीं था

उस नीम के पेड़ के नीचे से,
जहाँ एक बार मीरा हल्की बारिश में खड़ी थी,
ऐसे जैसे उसे दिखाना हो कि
उसे पता नहीं कि कोई सीढ़ियों से उसे देख रहा है

अब कोई मंज़िल नहीं थी
सिर्फ़ एक सफ़र था

आख़िरकार वो एम्फीथिएटर की पत्थर की सीढ़ियों तक पहुँच गया
वहाँ कोई नहीं था
सिर्फ़ कुछ खाली रैपर्स,
जो हवा में उड़ रहे थे

वो बैठ गया

पाँव फैलाए
कोहनियों के सहारे थोड़ा पीछे झुका
और ऊपर देखा

आसमान पहले से ज़्यादा साफ़ था
बहुत ज़्यादा तारे नहीं थे
पर जितने थे
काफ़ी थे

और वहीं,
उस जगह की ख़ामोशी में
जहाँ इतने शब्द कभी बोले ही नहीं गए
आरव ने पहली बार
सब कुछ सच में महसूस किया

किसी फ्लैशबैक की तरह नहीं
बल्कि एक मौजूद एहसास की तरह

उसे किसी गाने की ज़रूरत नहीं थी
जो वो कहे जो कह नहीं सकता था

वो बस वहीं बैठा रहा
शांत
खुला हुआ
कुछ बदल चुका था

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