अध्याय पंद्रह: मैंने भी तुम्हें देखा था
वो याद अचानक आई।
आरव ने उस दिन के बारे में बहुत समय से नहीं सोचा था।
इसलिए नहीं कि वो मायने नहीं रखता था,
बल्कि इसलिए कि उस वक़्त —
वो एक आम-सी दोपहर लगती थी,
उनके कॉलेज के आख़िरी सेमेस्टर के दौरान की एक और सामान्य दोपहर।
लेकिन अब,
जब मीरा की डायरी उसके पास बंद रखी थी,
और उसके शब्द अब भी उसके भीतर गूंज रहे थे,
वो पल फिर से लौट आया।
साफ़। नाज़ुक। अधूरा।
मार्च की शुरुआत थी।
परीक्षाएँ ख़त्म हो चुकी थीं,
और कैंपस में वही हल्की-सी आज़ादी वाली ऊर्जा थी
जो हमेशा नतीजों के बाद महसूस होती थी।
सूरज चमक रहा था।
हर तरफ़ छात्र थे —
कहीं हँसी-ठिठोली,
कहीं आख़िरी मिनट की ट्रिप की योजनाएँ,
कहीं इंटर्नशिप्स की बातें,
और कहीं पहले-पहले विदाई के पल।
आरव मुख्य लॉन पार कर रहा था,
एक पुरानी चमड़े की फ़ाइल अपने बाजू में दबाए।
वो नोटिस बोर्ड की ओर जा रहा था,
जहाँ शॉर्टलिस्ट लगी थी —
हालाँकि उसे भीतर ही भीतर पता था,
उसका नाम शायद नहीं होगा।
वो पुरानी पत्थर की लाइब्रेरी के पीछे से गुज़रा —
वही जगह जहाँ मीरा खिड़की के पास बैठा करती थी,
अपने हरे रंग के नोटबुक में कुछ लिखती हुई।
वो रुकने वाला नहीं था।
लेकिन फिर उसे किसी के हँसने की आवाज़ सुनाई दी।
तेज़ नहीं।
बस एक हल्की-सी हँसी,
जैसी कोई तब हँसता है
जब कोई बात सिर्फ़ उसे ही अंदर ही अंदर गुदगुदा जाए —
ऐसी बात जिसे कोई और शायद समझे भी नहीं।
उसने मुड़कर देखा।
और वहाँ वो थी।
मीरा।
वो सीढ़ियों पर अकेली बैठी थी।
हाथ में आधा खाया हुआ मैंगो बार था,
और उसका थोड़ा सा हिस्सा उसके अंगूठे पर लग गया था।
उसके बाल खुले थे,
और हवा ने उनमें से कुछ लटें हल्के से उड़ा दी थीं।
वो न अपने नोटबुक को देख रही थी,
ना ही फोन पर थी।
वो उसे देख रही थी।
और मुस्कुरा रही थी।
बस एक पल के लिए।
और वो… उसने नज़रें फेर लीं।
इसलिए नहीं कि वो उसकी मुस्कान थामना नहीं चाहता था।
बल्कि इसलिए कि वो नहीं जानता था — कैसे।
उसने मुस्कराहट का जवाब नहीं दिया।
वो रुका भी नहीं।
बस चुपचाप चलता रहा।
बाद में उसने खुद को समझाया —
शायद उसका कोई मतलब नहीं था।
शायद मीरा उसे देख भी नहीं रही थी।
शायद उसने जो नर्मी उसके चेहरे पर देखी थी,
या जो मौन निमंत्रण उसकी आँखों में था —
वो सब उसकी कल्पना थी।
पर अब —
सालों बाद, अपने अपार्टमेंट में बैठकर,
उसे अब भी वो पल महसूस हो रहा था।
वो अब भी मीरा को देख सकता था —
जैसी वो उस पल थी।
अब भी याद था उसे,
क्या कुछ था उस एक चुप्पी में,
जो उसने बिना शब्दों के उसे दिया था।
और कैसे उसने
उसे बिना समझे
बस गुज़र जाने दिया।
आरव शांत बैठा रहा,
कमरे की नर्म रोशनी में,
अपने हाथ गोद में रखे हुए।
और फिर उसने फुसफुसाकर कहा —
जैसे मीरा ठीक सामने बैठी हो:
"मैंने भी तुम्हें देखा था, मीरा।"
देर से।
पर सच में।
और आखिरकार।
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