अध्याय सोलह: किताबों की दुकान की खिड़की
मीरा की डायरी की आख़िरी प्रविष्टि पढ़े हुए आरव को एक हफ़्ता हो चुका था।
उसने उसे दोबारा नहीं खोला।
इसलिए नहीं कि अब भी दर्द होता था।
अब नहीं होता।
बल्कि इसलिए कि अब वो कहानी पूरी लगती थी —
ऐसी कहानी, जो बड़े पलों से नहीं,
बल्कि उन शांत पलों से कही गई थी
जो उन्होंने कभी ज़बान पर नहीं लाए।
उसने मीरा को कुछ लिखकर भेजने की कोशिश नहीं की।
कहने को कुछ बचा ही नहीं था।
और पहली बार,
उसे समझ आया कि हर ख़ामोशी खाली नहीं होती।
कभी-कभी, वो शांति होती है।
पर ज़िंदगी चलती रहती है।
एक शांत रविवार की सुबह,
आरव खुद को एक छोटी-सी किताबों की दुकान के बाहर खड़ा पाया।
दुकान एक पुरानी दवा की दुकान और एक कॉफ़ी स्टॉल के बीच में थी —
जहाँ अब भी दाम हाथ से लिखे जाते थे।
उसने यहाँ आने की कोई योजना नहीं बनाई थी।
पैर अपने आप वहाँ पहुँच गए थे —
जैसे उन्हें कुछ याद था,
जो दिमाग़ अभी नहीं पकड़ पाया।
दुकान दिखने में अपनी उम्र से ज़्यादा पुरानी लग रही थी।
लकड़ी की शेल्फें हल्की झुकी हुई थीं,
और दीवारें मटमैले हरे रंग की थीं।
अंदर जाने पर वहाँ एक सुकून भरा सन्नाटा था —
लाइब्रेरी जैसा।
उसे मीरा की याद आई।
वो हमेशा शब्दों को किसी जगह की तरह देखती थी —
जैसे जिनमें वो चल सकती हो।
उसने दरवाज़ा खोला।
एक हल्की घंटी बजी।
काउंटर के पीछे एक औरत खड़ी थी।
वो सेकंड हैंड किताबों का ढेर सजा रही थी।
उसने एक सादा काली कुर्ती पहन रखी थी,
जिसकी बाजू उसकी कोहनी के ऊपर मुड़ी हुई थीं।
बाल बंधे हुए थे,
कुछ लटें ढीली होकर चेहरे पर गिर रही थीं।
उसने खुद को अलग दिखाने की कोशिश नहीं की।
उसने आरव को ऐसे देखा
जैसे कोई खिड़की पर गिरती बारिश को देखता है —
शांत, सोचती हुई।
“पहली बार आए हो?” उसने किताब से धूल झाड़ते हुए पूछा।
आरव ने सिर हिलाया। “कई बार पास से गुज़रा हूँ। अंदर कभी नहीं आया।”
“तो शायद आज वो दिन था जब आना ज़रूरी था,”
उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा।
आरव धीरे-धीरे शेल्फों के बीच चलने लगा,
पुरानी किताबों की किनारियों को हल्के से छूता हुआ।
वो कुछ ढूंढ नहीं रहा था।
बस उस ख़ामोशी को खुद में उतरने दे रहा था।
अजीब बात थी —
ये ख़ामोशी भारी नहीं लग रही थी।
ये गरमाहट जैसी थी।
उसने एक छोटी-सी कविता की किताब उठाई।
अंदर एक हाथ से लिखा हुआ नोट था:
“किसी खास के लिए नहीं। और फिर भी, हर किसी के लिए।”
मीरा को ये पसंद आता।
वो किताब काउंटर पर ले आया।
“तुम लेखक हो,”
उस औरत ने कहा, इससे पहले कि वो कुछ बोलता।
ये सवाल नहीं था —
बस एक बात,
जैसे उसने जान लिया हो।
आरव थोड़ा रुका। “मैं… हुआ करता था।”
उसने सिर थोड़ा झुकाया।
“लेखक कहीं जाते नहीं।
बस थोड़ी देर ठहरते हैं।”
आरव ने उसे देखा।
वो मीरा जैसी नहीं लगती थी।
और शायद यही अच्छा था।
शायद इसी वजह से,
उसका दिल भारी नहीं हुआ।
उसने किताब खरीदी।
उसने उसे रसीद दी।
रसीद पर कोई लोगो नहीं था —
बस दुकान का पता टाइप किया हुआ।
नीचे उसने हाथ से लिखा:
"तुम्हें वही नहीं लिखना जो याद है।
तुम वो भी लिख सकते हो जो कभी हुआ ही नहीं — बस सोचा था।"
आरव बाहर धूप में आया,
किताब हाथ में थी — हल्की।
और कई सालों में पहली बार,
उसने पीछे मुड़कर नहीं सोचा।
उसने सोचा —
अब भी कितना कुछ हो सकता है।
***
गुरुवार की शाम
आरव फिर उसी किताबों की दुकान के बाहर खड़ा था।
करीब सात बज रहे थे।
मुंबई का आसमान सुनहरा हो चुका था।
सड़क की आवाज़ें धीमी पड़ गई थीं,
जैसे शहर खुद को रात के लिए धीमा कर रहा हो।
वो कुछ लेकर नहीं आया था।
ना डायरी।
ना जर्नल।
बस खुद।
और किसी तरह —
अब वही काफी था।
दुकान के अंदर
पिछली बार से भी ज़्यादा ख़ामोशी थी।
कविता और यात्रा वाली शेल्फ़ों के बीच
कुछ कुर्सियाँ गोल घेरे में रखी थीं।
शायद दस लोग रहे होंगे।
सब एक छोटे स्टूल और एक रीडिंग लैंप की ओर देख रहे थे,
जिसके नीचे एक छोटा-सा गलीचा था।
वही औरत सामने थी।
उसने आरव को देखा और हल्के से सिर हिलाया।
कुछ कहा नहीं।
वो ऐसा लम्हा था
जो कहता है: “तुम यहाँ स्वागत के साथ हो,”
बिना ज़ोर डाले।
आरव पीछे की सीट पर बैठ गया।
पढ़ना शुरू हुआ।
कुछ लोगों ने अपनी पुरानी डायरी से पढ़ा।
एक औरत ने याद से बोला।
एक कॉलेज छात्र ने एक छोटी कहानी पढ़ी —
अपने पिता की चप्पलों और घर की ख़ुशबू पर।
किसी ने वो ख़त पढ़ा
जो कभी भेजा नहीं गया था।
किसी ने ताली नहीं बजाई।
ज़रूरत भी नहीं थी।
हर कोई ऐसे सुन रहा था
जैसे उन्होंने भी कुछ ऐसा ही झेला हो —
भले ही कहानी अलग हो।
फिर एक चुप सा पल आया।
वो औरत सामने देख रही थी —
आरव की ओर।
उसने नाम नहीं पुकारा।
बस रुकी।
जैसे कह रही हो: "अगर कुछ कहना हो, तो अब कह सकते हो।"
पहले तो आरव हिला नहीं।
फिर धीरे से,
उसने अपनी जैकेट की जेब में हाथ डाला।
एक मुड़ा हुआ कागज़ निकाला।
मीरा के शब्द नहीं।
उसके अपने शब्द।
जो उसने बीती रात बिना संपादन किए लिख डाले थे।
वो स्टूल के पास गया।
कागज़ वहाँ रखा।
एक पल ठहर गया।
फिर ऊपर देखा —
किसी को खोजने नहीं।
बस साँस लेने।
और पढ़ा:
**
"कुछ लोग चले जाते हैं,
ना दरवाज़ा पटकते,
ना आधे-अधूरे शब्दों के साथ,
बस एक ख़ुशबू की तरह
जो उस शर्ट से मिटती जाती है
जिसे तुम अब भी पहने हो — भूलकर।
ये तुम्हें याद करने के बारे में नहीं है।
ये उस हिस्से के बारे में है
जो बस तब बोलता था
जब तुम कमरे में होती थी।
और तब से
कितनी ख़ामोशी रही है।
पर अब वो ख़ाली नहीं लगती।
अब नहीं।
मैंने नए शब्द पाए हैं।
वो तुम्हारे जैसे नहीं हैं।
वो मेरे हैं।
"**
वो कागज़ फिर से मोड़कर अपनी सीट पर लौट आया।
कोई कुछ नहीं बोला।
रीडिंग लैंप से हल्की आवाज़ आ रही थी।
किसी ने कुर्सी खिसकाई।
बाहर कहीं कार का हॉर्न बजा —
लेकिन अब कोई फर्क नहीं पड़ता था।
फिर अगला व्यक्ति उठ खड़ा हुआ और पढ़ना शुरू किया।
और शाम चलती रही।
बाद में,
जब लोग पैक कर रहे थे,
वो औरत आरव के पास आई।
“वो टुकड़ा,” उसने कहा,
“इंतज़ार नहीं था।
वो जागना था।”
आरव मुस्कुराया।
बस हल्का-सा।
पर सच में।
“मुझे लगता है,
अब मैं उसके बारे में लिखना छोड़ रहा हूँ।”
“ठीक है,”
उसने जवाब दिया।
“अब तुम अपने बारे में लिख सकते हो।”
वो घर की ओर चल पड़ा।
कोई बारिश नहीं थी।
बस एक हल्की-सी हवा —
जो तुम्हारे पास से गुजर जाती है
बिना कोई निशान छोड़े।
और जब वो अपने अपार्टमेंट पहुँचा —
उसने वो किया,
जो उसने दस साल से नहीं किया था।
उसने एक खाली दस्तावेज़ खोला।
और लिखना शुरू किया।
No comments:
Post a Comment