अध्याय सत्रह: याद रखने लायक
ट्रेन धीरे-धीरे गाँवों के बीच से गुजर रही थी।
पटरियों पर उसके पहियों की आवाज़ —
धीमी, जानी-पहचानी —
पीछे छूटते समय की तरह लग रही थी।
मीरा खिड़की के पास बैठी थी।
घुटने थोड़े मुड़े हुए,
गोद में खुली एक किताब पड़ी थी।
एक घंटे से उसने एक शब्द भी नहीं पढ़ा था।
बाहर हरे खेत धुँधले होकर पीछे भाग रहे थे।
बीच-बीच में संकरे रास्ते निकलते,
और कभी-कभी कोई रंग चमकता —
नारंगी गेंदे के फूल,
या किसी घर की छत पर सूखते नीले कपड़े।
यह जगह अभी तक उसका "घर" नहीं थी।
पर जो उसने पहले जाना था, उससे यह कुछ अलग था।
नरम।
हल्का।
पुरानी यादों में उलझा नहीं।
वो एक शांत तटीय कस्बे की ओर जा रही थी —
जहाँ कोई उसे नहीं जानता।
वहाँ उसे एक छोटे से स्कूल में नौकरी मिली थी।
बस एक सूटकेस में सामान रखा था।
और एक ऐसा कमरा किराए पर लिया था,
जो एक संगीत वाद्य यंत्रों की मरम्मत करने वाली दुकान के ऊपर था।
वो भाग नहीं रही थी।
ना ही किसी और की तरह बनने की कोशिश कर रही थी।
वो बस थोड़ा हल्का महसूस करना चाहती थी।
करीब एक महीने पहले,
उसने हरे रंग की डायरी आरव को भेज दी थी।
ना कोई चिट्ठी साथ रखी।
ना कोई लंबा स्पष्टीकरण।
बस एक शांत दोपहर में लिया गया एक सादा फ़ैसला।
उसने जवाब का इंतज़ार नहीं किया।
ज़रूरत नहीं थी।
यही अजीब बात है सच्चे closure की —
वो नाटक के साथ नहीं आता।
वो जाते-जाते कुछ तोड़ता नहीं।
वो बस वही पुराने सवाल पूछना बंद कर देता है।
और मीरा ने आखिरकार पूछना छोड़ दिया था।
अब उसके बैग में एक नई डायरी थी।
ना वो हरी वाली —
वो तो अब अतीत की थी,
और साझा की जा चुकी थी।
उस डायरी के साथ,
वो बहुत कुछ पीछे छोड़ आई थी।
ये नई डायरी छोटी थी।
सादी।
कवर पर कोई नाम नहीं।
अंदर...
उस ज़िंदगी की छोटी-छोटी झलकियाँ थीं
जो वो अब बनाना शुरू कर रही थी।
अपने छात्रों के रफ स्केच।
ट्रेन की सवारी में लिखी गई छोटी कविताएँ।
लोगों की बातचीत की कुछ लाइनें
जिन्होंने उसे मुस्कुरा दिया।
पहले पन्ने पर उसने एक ही वाक्य लिखा था:
“हर चीज़ सुंदर हो — ये ज़रूरी नहीं,
याद रखने लायक़ हो — ये काफ़ी है।”
उसकी नानी कहा करती थीं ये बात —
अक्सर जब पुराने कपड़े सी रही होतीं
या उन पौधों को पानी दे रही होतीं
जिनमें फूल कभी नहीं आते थे।
मीरा ने कुछ पल के लिए आँखें बंद कीं
और ट्रेन को उसे वहाँ ले जाने दिया
जहाँ वो जा रही थी।
उसे नहीं पता था कि आरव ने पूरी डायरी पढ़ी या नहीं।
उम्मीद थी कि पढ़ी होगी।
पर उससे भी ज़्यादा —
उसे उम्मीद थी कि आरव आगे बढ़ गया होगा।
हर कहानी
लोगों के फिर से मिलने पर खत्म नहीं होती।
कभी-कभी,
वो तब पूरी होती है
जब कोई खुद को फिर से पा ले।
और मीरा जानती थी —
बस इतना ही काफ़ी था।
उस शाम,
जब ट्रेन आख़िरकार समुंदर किनारे के उस छोटे से कस्बे में रुकी —
मीरा प्लेटफ़ॉर्म पर उतरी।
सूरज ढल चुका था।
पर आसमान अब भी उस मुलायम गुलाबी रोशनी से चमक रहा था
जो सिर्फ़ कुछ पलों के लिए रहती है।
एक छोटा बच्चा उसके पास से दौड़ता हुआ गुज़रा —
काग़ज़ की पतंग लिए।
कहीं पास ही कोई बांसुरी बजा रहा था।
मीरा मुस्कुराई।
अतीत की वजह से नहीं।
बल्कि —
वर्तमान की वजह से।
उस एक लम्हे की वजह से।
और सालों में पहली बार,
उसे ऐसा नहीं लगा
कि उसकी कहानी अधूरी रह गई है।
उसे लगा —
वो अभी शुरुआत कर रही है।
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