अध्याय छह: चुप्पी के भीतर की दूरी
अगले दो दिनों तक, वो गायब रही।
शाब्दिक रूप से नहीं।
मीरा अब भी कैंपस में थी — डाइनिंग हॉल में, शाम को आँगन की सीढ़ियों पर बैठी हुई, इधर-उधर दिखती रही।
पर वो कभी आरव के आसपास नहीं थी।
न जाने-अनजाने भी नहीं।
एक बार भी नहीं।
जैसे उसने ऐसा तरीका ढूँढ लिया हो जिससे वो सिर्फ उन्हीं लोगों को दिखे जो उसे ढूँढ नहीं रहे थे।
आरव उसके पीछे नहीं गया।
वो ऐसा नहीं करता।
पर उसकी नज़रें फिर भी उसे खोजती रहीं।
हर कमरे के कोनों से उसे ढूँढतीं।
ऐसी बातचीतों के बीच जिनका वो हिस्सा नहीं था, उन लेक्चर्स में जिनमें वो ध्यान नहीं लगा पा रहा था, और हॉस्टल की भीड़भाड़ वाली गलियों में चलते हुए भी।
उसका ध्यान बार-बार उस ओर खिंच जाता, जैसे उसका मन किसी ऐसे को खोज रहा हो जिसे छूना मुमकिन नहीं था।
फिर शुक्रवार की सुबह, उसने उसे फिर देखा।
वो लाइब्रेरी की दूसरी मंज़िल पर था, नीचे पढ़ने की टेबल्स की तरफ़ देख रहा था।
धूल भरी खिड़कियों से धूप भीतर आ रही थी।
तभी वो अंदर आई।
मीरा।
उसने एक गहरे नीले रंग की शॉल ढीली-सी लपेट रखी थी, जैसे वो कभी भी सरक सकती हो।
वो थकी हुई लग रही थी — नींद की कमी से नहीं, बल्कि उस थकान से जो अंदर ही अंदर सब कुछ चूस लेती है।
वो एक किताब लिए हुए थी, लेकिन उसकी पकड़ में कसावट नहीं थी।
बस रखी हुई थी, जैसे कोई आदत।
उसने उसे नहीं देखा।
और उसने भी कुछ नहीं कहा।
वो बस देखता रहा, जब वो खिड़की के पास एक सीट पर जा बैठी।
उसने किताब खोली, पर पढ़ी नहीं।
उसकी नज़रें स्थिर थीं।
वो किसी और जगह होना चाहती थी, ये साफ़ दिखता था।
उसी दिन दोपहर को, वे दोनों भाषा विभाग की सीढ़ियों के पास आ गए।
वे किसी ऐसी क्लास का इंतज़ार कर रहे थे जिसमें जाने की कोई खास इच्छा नहीं दिख रही थी।
दोपहर की धूप ने पुराने भवन को कुछ मुलायम सा बना दिया था।
आरव रेलिंग से टिककर खड़ा था।
मीरा थोड़ी दूरी पर खड़ी थी, हाथ बाँधे हुए, ज़मीन पर पड़े रैपर्स से चुगते गौरैयों को देखती रही।
"कल की सेमिनार में तुमने कुछ कहा था,"
उसने बिना उसकी तरफ़ देखे कहा।
"कि अधूरी इमारतें भी अपनी कहानी कहती हैं।"
उसने सिर हिलाया। "हाँ। क्यों?"
"तुमने जैसे कहा, वो अच्छा लगा,"
उसने कहा।
"बात नहीं, बस कहने का ढंग।"
वो नहीं जानता था कि इसका जवाब कैसे दे।
इसलिए चुप रहा।
"मैं तुम्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर रही,"
मीरा ने थोड़ी देर बाद कहा।
"लोग सोचते हैं कि मैं कर रही हूँ। पर मैं नहीं।"
"मैंने ऐसा नहीं कहा।"
वो आखिरकार उसकी तरफ़ मुड़ी, और दीवार से थोड़ा पीछे टिक गई।
"मैं हमेशा नहीं जानती कि क्या कहना चाहिए।"
"ज़रूरी नहीं है,"
आरव ने कहा।
"हम बस क्लासमेट हैं, मीरा।"
उसके चेहरे पर कोई बदलाव नहीं आया।
उसने बस सिर हिलाया। "हाँ। पता है।"
दोनों आँगन की तरफ़ देखने लगे, जहाँ दो छात्र एक टूटे प्रोजेक्टर को लेकर धीरे-धीरे बहस कर रहे थे।
"मुझे जाना चाहिए,"
उसने कहा।
"हाँ।"
उसने अपना बैग उठाया और स्ट्रैप सही किया।
फिर एक पल के लिए रुकी, जैसे कुछ और कहने वाली हो।
लेकिन कुछ नहीं कहा।
"क्लास में मिलते हैं,"
उसने कहा।
आरव ने हल्के से हाथ उठाया।
"हाँ,
मिलते हैं।"
वो चली गई।
बस इतना ही।
न कोई छिपा हुआ मतलब।
न कोई वादा।
सिर्फ़ एक छोटी सी बातचीत, उन दो लोगों के बीच, जिन्हें शायद ये समझ आ गया था कि कुछ बातें न कहे जाना ही ठीक होता है।
उस रात, आरव ने ज़्यादा सोचा नहीं।
न ये कि उसने क्या कहा या क्या नहीं।
उसने बस अपना असाइनमेंट पूरा किया।
और चुप्पी को वैसा ही रहने दिया —
शांत।
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